Wednesday, April 2, 2014

माणिक

सपनों के सपाट कैनवास पर

रेखाएँ खींचता
असीम स्पर्श तुम्हारा
कभी झिंझोड़ता
कभी थपथपाता
कुछ खाँचे बनाता
आँकता हुआ चिन्हों को
रंगों से तरंगों को भिगोता रहा
एक रात का एक मख़मली एहसास।


कच्ची पक्की उम्मीदों में बँधा
सतरंगी सा उमड़ता आवेग
एक छलकता, प्रवाहित इंद्रधनुष
झलकता रहा गली-कूचों में
बिखरी सियाह परछाइयों
के बीच कहीं दबा दबा।


रात रोशन थी
श्वेत चाँदनी सो रही थी मुझमें
निष्कलंक!
अँधेरों की मुट्ठी में बंद
जैसे माणिक हो सर्प के
फन से उतरा हुआ।
सुबह का झुटपुटा
झुकती निगाहों में
बहती मीठी धूप
थम गया दर्पण दिन का
अपने अक़्स में गुम होता हुआ।

और तब
थका-हारा, भुजंग सा
दिन का यह सरसराता धुँधलका
सरकता रहा परछाइयों में प्रहर - प्रहर।
नींद में डूबी अधखुली आँखों के बीच
फासलों को निभाता यूँ दरबदर
साथ चलता रहा मेरे
एकटक आठों प्रहर।



-©मीना चोपड़ा
कविता संकलन "सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है" से!

No comments:

Post a Comment